ॐ नमोजी आद्या | वेद प्रतिपाद्या |जय जय स्वसंवेद्या | आत्मरुपा ||१||
देवा तूंचि गणेशु | सकलमति प्रकाशु |म्हणे निवृत्ति दासु | अवधारिजो जी ||२||
हें शब्दब्रह्म अशेष | तेचि मूर्ति सुवेष |तेथ वर्णवपु निर्दोष | मिरवत असे ||३||
स्मृति तेचि अवयव | देखा अंगिकभाव |तेथ लावण्याची ठेव | अर्थशोभा ||४||
अष्टादश पुराणे | तीचि मणिभूषणे |पदपद्धती खेवणे | प्रमेयरत्नांची ||५||
पदबंध नागर | तेचि रंगाथिले अंबर |जेथ साहित्यवाणे | सपूर उजाळाचे ||६||
देखा काव्यनाटका | जे निर्धारिता सकौतुका |त्याचि रुणझुणती क्षुद्रघंटिका | अर्थध्वनी || ७||
नाना प्रमेयांचि परी | निपुणपणे पाहता कुसरी |दिसती उचित पदे माझारी | रत्नें भली || ८||
तेथ व्यासादिकांच्या मति | तेचि मेखळा मिरवती |चोखाळपणे झळकती | पल्लवसडका || ९||
देखा षड्दर्शने म्हणिपती | तेचि भुजांची आकृती |म्हणऊनि विसंवादे धरिती | आयुधे हाती || १०||
तरी तर्क तोचि परशु | नीतिभेदु अंकुशु |वेदांतु तो महारसु | मोदकाचा || ११ ||
एके हाति दंतु | जो स्वभावता खंडितु |तो बौद्धमत संकेतु | वार्तिकांचा || १२ ||
मग सहजे सत्कारवादु | तो पद्मकरु वरदु |धर्मप्रतिष्ठा तो सिद्धु | अभयहस्तु || १३ ||
देखा विवेकमंतु सुविमळु | तोचि शुंडादंडु सरळु |जेथ परमानंदु केवळु | महासुखाचा || १४ ||
तरी संवादु तोचि दशनु | जो समताशुभ्रवर्णु |देवो उन्मेषसुक्ष्मेक्षणु | विघ्नराजु || १५ ||
मज अवगमलिया दोनी | मीमांसा श्रवणस्थानी |बोधमदामृत मुनी | अलि सेविती || १६ ||
प्रमेयप्रवाल सुप्रभ | द्वैताद्वैत तेचि निकुंभ |सरिसे एकवटत | इभ मस्तकावरी || १७ ||
उपरि दशोपनिषदे | जिये उदारे ज्ञानमकरंदे |तिये कुसुमे मुगुटी सुगंधे | शोभती भली || १८ ||
अकार चरणयुगुल | उकार उदर विशाल |मकार महामंडल | मस्तकाकारे || १९ ||
हे तिन्ही एकवटले | तेथ शब्दब्रह्म कवळले |ते मियां गुरूकृपा नमिले | आदिबीज || २० ||
आतां अभिनव वाग्विलासिनी | जे चातुर्यार्थकला कामिनी |ते शारदा विश्वमोहिनी | नमिली मियां || २१ ||
मज हृदयी सद्गुरू | तेणे तारिलो हा संसारपूरु |म्हणऊनि विशेष अत्यादरू | विवेकावरी || २२ ||
जैसे डोळ्यां अंजन भेटे | मग दृष्टीसी फांटा फुटे |मग वास पाहे तेथ प्रकटे | महानिधी || २३ ||
का चिंतामणी जालया हाती | सदा विजयवृत्ति मनोरथी |तैसा मी पूर्णकाम निवृत्ती | ज्ञानदेवो म्हणे || २४ ||
म्हणोन जाणतेनो गुरू भजिजे | तेणे कृतकार्य होईजे |जैसे मूळसिंचने सहजे | शाखापल्लव संतोषती || २५ ||
का तीर्थे जिये भुवनी | तिये घडती समुद्रावगहनी |ना तरी अमृतरसास्वादनीं | रस सकळ || २६ ||
तैसा पुढतपुढती तोची | मियां अभिवंदिला श्रीगुरूचि |जे अभिलषित मनोरुची | पुरविता तो || २७ ||
आता अवधारा कथा गहन | जे सकळां कौतुका जन्मस्थान |की अभिनव उद्यान | विवेकतरूचे || २८ ||
ना तरी सर्व सुखांची आदि | जे प्रमेयमहानिधी |नाना नवरससुधाब्धि | परिपूर्ण हे || २९ ||
की परमधाम प्रकट | सर्व विद्यांचे मूळपीठ |शास्त्रजाता वसिष्ठ | अशेषांचे || ३० ||
ना तरी सकळ धर्मांचे माहेर | सज्जनांचे जिव्हार |लावण्यरत्नभांडार | शारदियेचे || ३१||
नाना कथारूपे भारती | प्रकटली असे त्रिजगती |आविष्करोनी महामती | व्यासाचिये || ३२||
म्हणोनी हा काव्यां रावो | ग्रंथ गुरुवतीचा ठावो |एथुनि रसां आला आवो | रसाळपणाचा || ३३||
तेवींचि आइका आणिक एक | एथुनि शब्दश्री सच्छास्त्रिक |आणि महाबोधि कोवळीक | दुणावली || ३४||
एथ चातुर्य शहाणे झाले | प्रमेय रुचीस आले |आणि सौभाग्य पोखले | सुखाचे एथ || ३५||
माधुर्यी मधुरता | शृंगारी सुरेखता |रूढपण उचितां | दिसे भले || ३६||
एथ कळाविदपण कळा | पुण्यासी प्रतापु आगळा |म्हणऊनि जनमेजयाचे अवलीळा | दोष हरले || ३७||
आणि पाहता नावेक | रंगी सुरंगतेची आगळीक |गुणां सगुणतेचे बिक | बहुवस एथ || ३८||
भानुचेनि तेजें धवळले | जैसे त्रैलोक्य दिसे उजळले |तैसे व्यासमती कवळले | अवघे विश्व || ३९||
कां सुक्षेत्रीं बीज घातले | ते आपुलेयापरी विस्तारले |तैसे भारतीं सुरवाडले | अर्थजात || ४०||
ना तरी नगरांतरी वसिजे | तरी नागराचि होइजे |तैसे व्यासोक्तितेजे | धवळित सकळ || ४१||
कीं प्रथमवयसाकाळीं | लावण्याची नव्हाळी |प्रकटे जैसी आगळी | अंगनाअंगी || ४२||
ना तरी उद्यानी माधवी घडे | तेथ वनशोभेचि खाणी उघडे |आदिलापासोनि अपाडे | जियापरी || ४३||
नाना घनीभूत सुवर्ण | जैसे न्याहाळितां साधारण |मग अलंकाती बरवेपण | निवाडु दावी || ४४||
तैसे व्यासोक्ती अळंकारिले | आवडे ते बरवेपण पातले |ते जाणोनि काय आश्रयिले | इतिहासी || ४५||
नाना पुरतिये प्रतिष्ठेलागीं | सानीव धरुनी आंगी |पुराणे आख्यानरूपे जगीं | भारता आली || ४६||
म्हणऊनि महाभारतीं जे नाही | ते नोहेचि लोकी तिहीं |येणे कारणे म्हणिपे पाहीं | व्यासोच्छिष्ट जगत्रय || ४७||
ऐसी सुरस जगीं कथा | जे जन्मभूमि परमार्था |मुनि सांगे नृपनाथा | जनमेजया || ४८||
जे अद्वितीय उत्तम | पवित्रैक निरुपम |परम मंगलधाम | अवधारिजो || ४९||
आता भारतीं कमळपरागु | गीताख्यु प्रसंगु |जो संवादिला श्रीरंगु | अर्जुनेसी || ५०||
ना तरी शब्दब्रह्माब्धि| मथिलेया व्यासबुद्धि |निवडिले निरवधि | नवनीत हे || ५१||
मग ज्ञानाग्निसंपर्के | कडसिलें विवेके |पद आले परिपाकें | आमोदासी || ५२||
जे अपेक्षिजे विरक्ति | सदा अनुभविजे संतीं |सोहंभावे पारंगती | रमिजे जेथ || ५३||
जे आकर्णिजे भक्ती | जें आदिवंद्य त्रिजगतीं |ते भीष्मपर्वीं संगती | सांगीजैल || ५४||
जें भगवद्गीता म्हणीजे | जें ब्रह्मेशांनीं प्रशंसिजे|जे सनकादिकीं सेविजे | आदरेसीं || ५५||
जैसे शारदियेचे चंद्रकळे- | माजीं अमृतकण कोंवळे |तें वेंचती मवाळें | चकोरतलगें || ५६||
तियापरी श्रोतां | अनुभवावी हे कथा |अति हळुवारपणे चित्ता | आणूनियां || ५७||
हे शब्देविण संवादिजे | इंद्रियां नेणता भोगिजे |बोलाआधि झोंबिजे | प्रमेयासी || ५८||
जैसे भ्रमर परागु नेती | परी कमळदळे नेणती |तैसी परी आहे सेविती | ग्रंथी इये || ५९||
का आपुला ठावो न सांडिता | आलिंगिजे चंद्रु प्रकटता |हा अनुरागु भोगितां | कुमुदिनी जाणे || ६०||
ऐसेनि गंभीरपणे | स्थिरावलेनि अंत:करणे |आथिला तोचि जाणे | मानूं इये || ६१||
अहो अर्जुनाचिये पांती | जे परिसणया योग्य होती |तिहीं कृपा करून संतीं | अवधान द्यावे || ६२||
हे सलगीं म्यां म्हणितले | चरणां लागोनि विनविलें |प्रभू सखोल हृदय आपुलें | म्हणऊनियां || ६३||
जैसा स्वभावो मायबापांचा | अपत्य बोले जरी बोबडी वाचा |तरी अधिकचि तयाचा | संतोष आथी || ६४||
तैसा तुम्हीं मी अंगीकारिलां | सज्जनीं आपुला म्हणितला |तरी सहज उणें उपसाहला | प्रार्थूं कायी || ६५||
परी अपराधु तो आणिक आहे | जें मी गीतार्थ कवळुं पाहें |ते अवधारा विनवूं लाहें | म्हणऊनियां || ६६||
हे अनावर न विचारितां | वायांचि धिंवसा उपनला चित्ता |येर्‍हवीं भानुतेजीं काय खद्योता | शोभा आथी || ६७||
का टिटिभू चांचूवरी | माप सूये सागरी |मी नेणतु त्यापरी | प्रवर्तें येथ || ६८||
आइका आकाश गिंवसावे | तरी त्याहूनि थोर होआवें |म्हणऊनि अपाडु हें आघवें | निर्धारिता || ६९||
या गीतार्थाची थोरी | स्वयें शंभू विवरी |जेथ भवानी प्रश्नु करी | चमत्कारोनी || ७०||
तेथ हरू म्हणे नेणिजे | देवी जैसें का स्वरूप तुझें |तैसें नित्यनूतन देखिजे | गीतातत्व || ७१||
हा वेदार्थसागरू | जया निद्रिताचा घोरू |तो स्वयें सर्वेश्वरू | प्रत्यक्ष अनुवादला || ७२||
ऐसें जें अगाध | जेथ वेडावती वेद |तेथ अल्प मी मतिमंद | काय होय || ७३||
हें अपार कैसेनि कवळावे | महातेज कवणें धवळावे |गगन मुठीं सुवावे | मशके केवीं || ७४||
परी एथ असे एक आधारु | तेणेचि बोलें मी सधरु |जे सानुकूळ श्रीगुरु | ज्ञानदेवो म्हणे || ७५||
येर्‍हवीं तरी मी मुर्खू | जरी जाहला अविवेकु |तरी संतकृपादीपु | सोज्वळु असे || ७६||
लोहाचे कनक होये | हे सामर्थ्य परिसींच आहे |की मृतही जीवित लाहे | अमृतसिद्धी || ७७ ||
जरी प्रकटे सिद्धसरस्वती | तरी मुकया आथी भारती |एथ वस्तुसामर्थ्यशक्ति | नवल कायी || ७८||
जयातें कामधेनू माये | तयासी अप्राप्य काही आहे |म्हणऊनि मी प्रवर्तों लाहे | ग्रंथी इये || ७९||
तरी न्यून ते पुरतें | अधिक ते सरते |करून घ्यावे हें तुमते | विनवीतु असे || ८०||
आता देईजो अवधान | तुम्हीं बोलविल्या मी बोलेन |जैसे चेष्टे सूत्राधीन | दारुयंत्र || ८१||
तैसा मी अनुग्रहीतु | साधूंचा निरोपितु |ते आपुला अलंकारितु | भलतयापरी || ८२||
तंव श्रीगुरू म्हणती राहीं | हे तुज बोलावे न लगे कांही |आता ग्रंथा चित्त देईं | झडकरी वेगा || ८३||
या बोला निवृत्तिदासु | पावूनि परम उल्हासु |म्हणे परियेसा मना अवकाशु | देऊनियां || ८४||
धृतराष्ट्र उवाच | धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय || १||
तरी पुत्रस्नेहे मोहितु | धृतराष्ट्र असे पुसतु |म्हणे संजया सांगे मातु | कुरुक्षेत्रींची || ८५||
जें धर्मालय म्हणिजे | तेथ पांडव आणि माझे |गेले असती व्याजें | झुंजाचेनि || ८६||
तरी तिहीं येतुला अवसरीं | काय किजत असे येरयेरीं |तें झडकरी कथन करी | मजप्रती || ८७||
संजय उवाच | दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा | आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् || २||
तिये वेळी तो संजय बोले | म्हणे पांडवसैन्य उचलले |जैसें महाप्रळयीं पसरले | कृतांतमुख || ८८||
तैसे तें घनदाट | उठावले एकवाट |जैसें उसळले कालकूट | धरीं कणव || ८९||
ना तरी वडवानलु सादुकला | प्रलयवाते पोखला |सागर शोषूनि उधवला | अंबरासी || ९०||
तैसे दळ दुर्धर | नाना व्यूहीं परिकर |अवगमले भयासुर | तिये काळीं || ९१||
तें देखिलेयां दुर्योधनें | अव्हेरिले कवणे माने |जैसें न गणिजे पंचाननें | गजवटांते || ९२ ||
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् | व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता || ३||
मग द्रोणापासी आला | तयाते म्हणे हा देखिला |कैसा दळभारु उचलला | पांडवांचा || ९३||
गिरिदुर्ग जैसे चालते | तैसे विविध व्यूह संभवते |हे रचिले आथि बुद्धिमंते | द्रुपद्कुमरें || ९४||
जो का तुम्हीं शिक्षापिला | विद्या देऊनी कुरुठा केला |तेणे हा पाखरिला | देखदेख || ९५||
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि | युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: || ४||
आणिकही असाधारण | जे शस्त्रास्त्रीं प्रवीण |जे क्षात्रधर्मीं निपुण | वीर आहाती || ९६||
जे बळें प्रौढी पौरुषें | भीमार्जुनांसारिखे |ते सांगेन कौतुकें | प्रसंगेचि || ९७||
एथ युयुधानु सुभटु | आला असे विराटु |महारथी श्रेष्ठु | द्रुपद वीरु || ९८ ||
धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजेश्च वीर्यवान | पुरुजित् कुंतिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगव: || ५||
युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान् | सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथ: || ६||
चेकितान धृष्टकेतु | काशिश्वरु विक्रांतु |उत्तमौज नृपनाथु | शैब्य देख || ९९ ||
हा कुंतिभोजु पाहे | एथ युधामन्यु आला आहे |आणि पुरुजितादि राय हे | सकळ देखे || १००||
हा सुभद्रहृदयनंदनु | जो अपरु नवा अर्जुनु |तो अभिमन्यु म्हणे दुर्योधनु | देखे द्रोणा || १०१||
आणिकही द्रौपदीकुमर | के सकळही महारथी वीर |मिती नेणिजे अपार | मीनले आथि || १०२ ||
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान् निबोध द्विजोत्तम | नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते || ७||
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समिंतिंजय: | अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तिस्थैव च || ८||
आतां आमुचां दळीं नायक | जे रूढ वीर सैनिक |ते प्रसंगे आइक | सांगिजती || १०३||
उद्देशें एक दोनी | जायिजती बोलोनी |तुम्हीआदिकरूनि | मुख्य जे जे || १०४||
हा भीष्मु गंगानंदनु | जो प्रतापतेजस्वी भानू |रिपुगजपंचाननु | कर्ण वीरु || १०५ ||
या एकेकाचेनि मनोव्यापारें | हे विश्व होय संहरे |हा कृपाचार्य न पुरे | एकलाचि || १०६||
एथ विकर्ण वीरु आहे | हा अश्वत्थामा पैल पाहें |याचा अडदरु सदा वाहे | कृतांतु मनीं || १०७||
समितिंजयो सोमदत्ति | ऐसे आणिकही बहुत आहाती |जयाचिया बळा मिती | धाताही नेणे || १०८||
अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: | नानाशस्त्रप्रहरण: सर्वे युद्धविशरद: || ९||
जे शस्त्रविद्यापारंगत | मंत्रावतार मूर्त |हो कां जे अस्त्रजात | एथूनि रूढ || १०९||
हे अप्रतिमल्ल जगीं | पुरता प्रतापु अंगी |परी सर्व प्राणें मजचिलागी | आराइले असती || ११०||
पतिव्रतेचे हृदय जैसे | पतीवांचूनि न स्पर्शे |मी सर्वस्व या तैसे | सुभटांसी || १११||
आमुचिया काजाचेनि पाडें | देखती आपुलें जीवित थोकडें |ऐसे निरवधि चोखडे | स्वामिभक्त || ११२||
झुंजती कुळकणी जाणती | कळे कीर्तीसी जिती |हे बहु असो क्षात्रनीती | एथोनियां || ११३||
ऐसें सर्वापरी पुरते | वीर दळी आमुतें |आतां काय गणूं यांतें | अपार हे || ११४||
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् | पर्याप्तं त्विदमेषां बलं भीमाभिरक्षितम् || १०||
वरी क्षत्रीयांमाजि श्रेष्ठु | जो जगजेठी गा सुभटु |तया दळवैपणाचा पाटु | भीष्मासी पैं || ११५||
आतां याचेनि बळें गवसलें | हें दुर्ग जैसे पन्नासीलें |येणे पाडे थेंकुले | लोकत्रय || ११६||
आधींच समुद्र पाहीं | तेथ दुवाडपणा कवणा नाहीं |मग वडवानळु तैसेयाही | विरजा जैसा || ११७||
ना तरी प्रलयवह्नि महावातु | या दोघां जैसा सांघातु |तैसा हा गंगासुतु | सेनापति || ११८||
आतां येणेंसि कवण भिडे | हे पांडव सैन्य कीर थोडें |ओइचलेनि पाडे | दिसत असे || ११९||
वरी भीमसेन बेथु | तो जाहला असे सेनानाथु |ऐसें बोलोनि हे मातु | सांडिली असे || १२०||
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः | भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि || ११||
मग पुनरपि काय बोले | सकळ सैनिकांते म्हणितलें |आता दळभार आपुलाले | सरसे करा || १२१||
जिया जिया अक्षौहिणी | तिये तिये आरणी |वरगण कवणकवणी | महारथिया || १२२||
तेणे तिया आवरिजे | भीष्मातळीं राहिजे |द्रोणाते म्हणिजे | तुम्हीं सकळ || १२३||
हाचि एकु रक्षावा | मी तैसा हा देखावा |येणें दळभारु आघवा | साचु आमुचा|| १२४||
तस्य स‍नयन् हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः | सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान् || १२||
या राजाचिया बोला | सेनापति संतोषला|मग तेणे केला | सिंहनादु || १२५||
तो गाजत असे अद्भुतु | दोन्ही सैन्यांआंतु |प्रतिध्वनि न समातु | उपजत असे || १२६||
तयाचि तुलगासवे | वीरवृत्तिचेनि थावें |दिव्य शंख भीष्मदेवें | आस्फुरिला || १२७||
ते दोन्ही नाद मिनले | तेथ त्रैलोक्य बधिरभूत जाहलें |जैसें आकाश कां पडिलें | तुटोनियां || १२८||
घडघडीत अंबर | उचंबळत सागर |क्षोभलें चराचर | कांपत असे || १२९||
तेणें महाघोषगजरें | दुमदुमताती गिरिकंदरें |तंव दलामाजि रणतुरें | आस्फारिलीं ||१३०||
ततः शंखाश्च भैर्यश्च पणवानकगोमुखः | सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ||१३||
उदंड सैंघ वाजतें | भयानकें खाखाते |महाप्रळयो जेथें | धाकडांसी || १३१ ||
भेरी निशाण मांदळ | शंख काहळा भोंगळ |आणि भयासुर रणकोल्हाळ | सुभटांचे || १३२||
आवेशें भुजा त्राहाटिती | विसणैले हांका देती |जेथ महामद भद्रजाती | आवरती ना || १३३||
तेथ भेडांची कवण मातु | कांचया केर फिटतु |जेणें दचकला कृतांतु | आंग नेघे || १३४||
एकां उभयतांचे प्राण गेले | चांगांचे दांत बैसले |बिरुदांचे दादुले | हिंवताती || १३५||
ऐसा अद्भुत तूरबंबाळु | ऐकोनि ब्रह्मा व्याकुळु |देव म्हणती प्रळयकाळु | ओढवला आजि || १३६||
ऐसी स्वर्गीं मातु | देखोनि तो आकांतु |तंव पांडवदळा आंतु | वर्तलें कायी || १३७||
हो कां निजसार विजयाचे | कीं ते भांडार महातेजाचे |जेथ गरुडाचिचे जावळिये | कांतले चार्‍ही || १३८||
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ | माधवः पांडवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः || १४||
की पाखांचा मेरु जैसा | रहंवरु मिरवितसे तैसा |तेजें कोंदटलिया दिशा जयाचेनि ||१३९||
जेथ अश्ववाहकु आपण | वैकुंठीचा राणा जाण |तया रथाचे गुण | काय वर्णूं || १४०||
ध्वजस्तंभावरी वानरु | तो मूर्तिमंत शंकरु |सारथी शारङधरु | अर्जुनेसीं || १४१||
देखा नवल तया प्रभूचें | प्रेम अद्भुत भक्तांचे |जे सारथ्य पार्थाचें | करीतु असे || १४२||
पाईकु पाठीसीं घातला | आपण पुढां राहिला |तेणें पांचजन्यु आस्फुरिला | अवलीळाचि || १४३||
पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः | पौंड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः || १५||
परी तो महाघोषु थोरु | गाजत असे गंहिरु |जैसा उदैला लोपि दिनकरु | नक्षत्रांते || १४४||
तैसें तुरबंबाळु भंवते | कौरवदळी गाजत होते |ते हारपोनि नेणों केऊते | गेले तेथ || १४५||
तैसाचि देखे येरें | निनादें अति गंहिरे |देवदत्त धनुर्धरे | आस्फुरिला || १४६||
ते दोनी शब्द अचाट | मिनले एकवट |तेथ ब्रह्मकटाह शतकूट | हों पाहत असे || १४७||
तंव भीमसेनु विसणैला | जैसा महाकाळु खवळला |तेणें पौंड्र आस्फुरिला | महाशंखु || १४८||
अनंतविजयं राजा कुंतीपुत्रो युधिष्ठिरः | नकुलः सहदेवश्चं सुघोष्मणिपुष्पकौ || १६||
तो महाप्रलयजलधरु | जैसा घडघडिला गंहिरु |तंव अनंतविजयो युधिष्ठिरु | आस्फुरित असे || १४९||
नकुळें सुघोषु | सहदेवे मणिपुष्पकु |जेणें नादें अतंकु | गजबजला असे || १५०||
काश्यश्च परमेश्वासः शिखंडी च महारथः | दृष्टद्युम्नो विराटश्च सातकिश्चापराजितः || १७||
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वेशः पृथिवीपते | सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान् दध्मुः पृथक् पृथक् || १८||
तेथ भूपती होते अनेक | द्रुपद द्रौपदेयादिक |हा काशीपती देख | महाबाहु || १५१||
तेथ अर्जुनाचा सुतु | सात्यकि अपराजितु |दृष्टद्युम्नु नृपनाथु | शिखंडी हन || १५२||
विराटादि नृपवर | जे सैनिक मुख्य वीर |तिहीं नाना शंख निरंतर | आस्फुरिले || १५३||
तेणें महाघोषनिर्घातें | शेषकूर्म अवचिते |गजबजोनि भूभारातें | सांडूं पाहती || १५४||
तेथ तिन्हीं लोक डंडळित | मेरु मांदार आंदोळित |समुद्रजळ उसळत | कैलासवेरी || १५५||
स घोषो धार्त्रराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् | नभश्च पृथिवींश्चैव तुमुलो व्यनुनादयन् || १९||
पृथ्वीतळ उलथों पाहत | आकाश असे आसुडत |तेथ सडा होत | नक्षत्रांचा || १५६||
सृष्टि गेली रे गेली | देवां मोकळवादी जाहली |ऐशी एक टाळी पिटिली | सत्यलोकीं | १५७ ||
दिहाचि दिन थोकला | जैसा प्रलयकाळ मांडला |तैसा हाहाकारु उठिला | तिन्हीं लोकीं || १५८||
तंव आदिपुरुषु विस्मितु | म्हणे झणें होय पां अंतु |मग लोपला अद्भुतु | संभ्रमु तो || १५९||
म्हणोनि विश्व सांवरले | एर्‍हवीं युगांत होतें वोडवले |जै महाशंख आस्फुरिले | कृष्णादिकीं || १६०||
तो घोष तरी उपसंहरला | परी पडिसाद होता राहिला |तेणें दळभार विध्वंसिला | कौरवांचा || १६१||
तो जैसा गजघटाआंतु | सिंह लीला विदारितु |तैसा हृदयातें भेदितु | कौरवांचिया || १६२||
तो गाजत जंव आइकती | तंव उभेचि हिये घालिती |एकमेकांते म्हणती | सावध रे सावध || १६३||
अथ व्यवस्थितान् दृष्टवा धार्तराष्ट्रानं कपिध्वजः | प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः || २०||
तेथ बळें प्रौढीपुरते | जे महारथी वीर होते |तिहीं पुनरपि दळातें | आवरिलें || १६४||
मग सरिसपणें उठावले | दुणावटोनि उचलले |तया दंडी क्षोभलें | लोकत्रय || १६५||
तेथ बाणवरी धनुर्धर | वर्षताती निरंतर |जैसे प्रलयांत जलधर | अनिवार का || १६६||
तें देखलिया अर्जुनें | संतोष घेऊनि मने |मग संभ्रमे दिठी सेने | घालितसे || १६७||
तंव संग्रामीं सज्ज जाहले | सकळ कौरव देखिले |मग लीला धनुष्य उचलिले | पंडुकुमरें || १६८||
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते | अर्जुन उवाच - सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत || २१|
ते वेळीं अर्जुन म्हणतसे देवा | आतां झडकरी रथु पेलावा |नेऊनि मध्यें घालावा | दोहीं दळां || १६९||
यावदेतान् निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् | कैर्मया सह योद्धव्यस्मिन् रणसमुद्यमे || २२||
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागतः | धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकिर्षवः || २३||
जंव मी नावेक | हे सकळ वीर सैनिक |न्याहळीन अशेख | झुंजते जे || १७०||
एथ आले असती आघवे | परी कवणेंसी म्यां झुंजावे |हे रणीं लागे पहावें | म्हणऊनियां || १७१||
बहुतकरुनि कौरव | हे आतुर दुःस्वभाव |वाटिवांवीण हांव | बांधिती झुंजीं || १७२||
झुंजाची आवडी धरती | परी संग्रामी वीर नव्हती |हे सांगेन रायाप्रती | काय संजयो म्हणे | १७३||
संजय उवाच: एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत | सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् || २४||
आइका अर्जुन इतुकें बोलिला | तंव कृष्णें रथु पेलिला |दोहीं सैन्यामाजि केला | उभा तेणें || १७४||
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् | उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति || २५||
तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् | आचार्यान् मातुलान् भ्रातृन् पुत्रान् पौत्रान् सखींस्थता || २६||
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि | तान् समीक्ष स कौंतेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् || २७||