ॐ नमो जी जनार्दना | नाहीं भवअभव भावना | न देखोनि मीतूंपणा | नमन श्रीचरणा सद्गुरुराया || १ ||
नमन श्रीएकदन्ता | एकपणें तूंचि आतां | एकीं दाविसी अनेकता | परी एकात्मता न मोडे || २ ||
तुजमाजीं वासु चराचरा | म्हणौनि बोलिजे लंबोदरा | यालागीं सकळांचा सोयरा | साचोकारा तूं होसी || ३ ||
तुज देखे जो नरु | त्यासी सुखाचा होय संसारु | यालागीं 'विघ्नहरु' | नामादरु तुज साजे || ४ ||
हरुष तें वदन गणराजा | चार्ही पुरुषार्थ त्याचि चार्ही भुजा | प्रकाशिया अप्रकाशी वोजा | तो झळकत तुझा निजदंतु || ५ ||
पूर्वउत्तरमीमांसा दोनी | लागलिया श्रवणस्थानीं | निःशब्दादि वाचा वदनीं | कर जोडूनि उभिया || ६ ||
एकेचि काळी सकळ सृष्टी | आपुलेपणें देखत उठी | तेचि तुझी देखणी दृष्टी | सुखसंतुष्टी विनायका || ७ ||
सुखाचें पेललें दोंद | नाभीं आवर्तला आनंद | बोधाचा मिरवे नागबंद | दिसे सन्निध साजिरा || ८ ||
शुद्ध सत्त्वाचा शुक्लांबर | कासे कसिला मनोहर | सुवर्णवर्ण अलंकार | तुझेनि साचार शोभति || ९ ||
प्रकृति पुरुष चरण दोनी | तळीं घालिसी वोजावुनी | तयांवरी सहजासनीं | पूर्णपणीं मिरवसी || १० ||
तुझी अणुमात्र झालिया भेटी | शोधितां विघ्न न पडे दृष्टी | तोडिसी संसारफांसोटी | तोचि तुझे मुष्टी निजपरशु || ११ ||
भावें भक्त जो आवडे | त्याचें उगविसी भवसांकडें | वोढूनि काढिसी आपणाकडे | निजनिवाडें अंकुशें || १२ ||
साच निरपेक्ष जो निःशेख | त्याचें तूंचि वाढविसी सुख | देऊनि हरिखाचे मोदक | निवविसी देख निजहस्तें || १३ ||
सूक्ष्माहूनि सूक्ष्म सान | त्यामाजीं तुझें अधिष्ठान | यालागीं मूषकवाहन | नामाभिधान तुज साजे || १४ ||
पाहता नरु ना कुंजरु | व्यक्ताव्यक्तासी परु | ऐसा जाणोनि निर्विकारू | नमनादरु ग्रंथार्थीं || १५ ||
ऐशिया जी गणनाथा | मीपणें कैंचा नमिता | अकर्ताचि जाहला कर्ता | ग्रंथकथाविस्तारा || १६ ||
आतां नमूं सरस्वती | जे सारासारविवेकमूर्तीं | चेतनारूपें इंद्रियवृत्ती | जे चाळीती सर्वदा || १७ ||
जे वाचेची वाचक | जे बुद्धीची द्योतक | जे प्रकाशा प्रकाशक | स्वयें देख स्वप्रभ || १८ ||
जे शिवांगीं शक्ती उठी | जैसी डोळ्यामाजीं दिठी | किंवा सुरसत्वें दावी पुष्टी | फळपणें पोटीं फळाच्या || १९ ||
जैसा साखरेअंगी स्वादु | किं सुमनामाजीं मकरंदु | तैसा शिवशक्ती संबंधू | अनादिसिद्ध अतर्क्य || २० ||
ते अनिर्वाच्य निजगोडी | चहूं वाचांमाजीं वाडी | म्हणोनि वागीश्वरी रोकडी | ग्रंथार्थी चोखडी चवी दावी || २१ ||
सारासार निवडिती जनीं | त्या हंसावरी हंसवाहिनी | बैसली सहजासनीं | अगम्यपणीं अगोचरु || २२ ||
ते परमहंसीं आरूढ | तिसी विवेकहंस जाणती दृढ | जवळी असतां न देखती गूढ | अभाग्य मूढ अतिमंद || २३ ||
तिचें निर्धारितां रूप | अरूपाचें विश्वरूप | तें आपुलेपणें अमूप | कथा अनुरूप बोलवी || २४ ||
हा बोलु भला झाला | म्हणोनि बोलेंचि स्तविला | तैसा स्तुतिभावो उपजला | बोलीं बोला गौरवी || २५ ||
ते वाग्विलास परमेश्वरी | सर्वांगदेखणी सुंदरी | राहोनि सबाह्यअभ्यंतरीं | ग्रंथार्थकुसरी वदवी स्वयें || २६ ||
ते सदा संतुष्ट सहज | म्हणोनि निरूपणा चढलें भोज | परी वक्तेपणाचा फुंज | मीपणें मज येवों नेदी || २७ ||
वाग्देवतेची स्तुती | वाचाचि जाहली वदती | तेथें द्वैताचिये संपत्ती | उमस चित्तीं उमजेना || २८ ||
तिणें बोल बोलणें मोडिलें | समूळ मौनातें तोडिलें | त्यावरी निरूपण घडिलें | न बोलणें बोलें बोलवी || २९ ||
तिसी सेवकपणें दुसरा | होऊनि निघे नमस्कारा | तंव मीपणेंसीं परा | निजनिर्धारा पारुषे || ३० ||
जेथें मीपणाचा अभावो | तेथें तूंपणा कैंचा ठावो | याहीवरी करी निर्वाहो | अगम्य भावो निरूपणीं || ३१ ||
जैशा सागरावरी सागरीं | चालती लहरींचिया लहरी | तैसे शब्द स्वरूपाकारीं | स्वरूपावरी शोभती || ३२ ||
जैशा साखरेचिया कणिका | गोडिये भिन्न नव्हती देखा | तैसें निरूपण ये रसाळसुखा | ब्रह्मरसें देखा समवृत्ति || ३३ ||
तेथें मीपणेंशीं सरस्वती | बैसविलें एका ताटें रसवृत्ती | तेणें अभिन्नशेष देऊनि तृप्ती | ते हे उद्गार येती कथेचे || ३४ ||
आतां वंदू ते सज्जन | जे कां आनंदचिद्घन | वर्षताती स्वानन्दजीवन | संतप्त जन निववावया || ३५ ||
ते चैतन्याचे अळंकार | कीं ब्रह्मविद्येचे शृंगार | कीं ईश्वराचें मनोहर | निजमंदीर निवासा || ३६ ||
ते अधिष्ठाना अधिवासु | कीं सुखासही सोल्हासु | विश्रांतीसी विश्वासू | निजरहिवासू करावया || ३७ ||
कीं ते भूतदयार्णव | कीं माहेरा आली कणव | ना ते निर्गुणाचे अवेव | निजगौरव स्वानंदा || ३८ ||
ना ते डोळ्यातील दृष्टी | कीं तिचीही देखणी पुष्टी | कीं संतुष्टीसी तुष्टी | चरणांगुष्ठीं जयांचे || ३९ ||
ते पाहती जयांकडे | त्यांचें उगवे भवसांकडें | परब्रह्म डोळियांपुढें | निजनिवाडें उल्हासे || ४० ||
तेथें साधनचतुष्टयसायास | न पाहती शास्त्रचातुर्यविलास | एका धरिला पुरे विश्वास | स्वयें प्रकाश ते करिती || ४१ ||
ते जगामाजीं सदा असती | जीवमात्रातें दिसती | परी विकल्पेंचि ठकिजती | नाहीं म्हणती नास्तिक्यें || ४२ ||
मातियेचा द्रोण केला | तो कौळिका भावो फळला | म्हणौनि विश्वासेंवीण नाडला | जगु ठकला विकल्पें || ४३ ||
एकाएकीं विश्वासतां | तरी वाणी नाहीं निजसत्ता | त्यांचे चरणी भावार्थता | ठेविला माथां विश्वासें || ४४ ||
ते नमस्कारितां आवश्यक | करून ठाकती एक | परी एकपणें सेवक | त्यांचाचि देख स्वयें होआवें || ४५ ||
त्यांचिया सेवेचिये गोडी | ब्रह्मसुखाची उपमा थोडी | जे भजती अनन्य आवडीं | ते जाणती गाढी निजचवी || ४६ ||
ते प्रकृतीसी पर | प्रकृतिरूपीं ते अविकार | आकार-विकार-व्यवहार | त्यांचेनि साचार बाधीना || ४७ ||
ते भोगावरी न विटती | त्यागावरी न उठती | आपुलिये सहजस्थिती | स्वयें वर्तती सर्वदा || ४८ ||
ते ज्ञातेपणा न मिरविती | पिसेपण न दाविती | स्वरूपफुंजुविस्मृती | गिळूनि वर्तती निजांगें || ४९ ||
प्रेमा अंगींचि जिराला | विस्मयो येवोंचि विसरला | प्रपंचुपरमार्थु एकु जाहला | हाही ठेला विभागु || ५० ||
स्मरण विस्मरणेंशीं गेलें | देह देहींच हारपलें | आंतुबाहेरपण गेलें | गेलें ठेलें स्मरेना || ५१ ||
स्वप्न जागृती जागतां गेली | सुषुप्ती साक्षित्वेंसीं बुडाली | उन्मनीही वेडावली | तुर्या ठेली तटस्थ || ५२ ||
दृश्य द्रष्टेनशीं गेलें | दर्शन एकलेपणें निमालें | तें निमणेंपणही विरालें | विरवितें नेलें विरणेनी || ५३ ||
ज्ञान अज्ञानातें घेऊनि गेलें | तंव ज्ञातेपणही बुडालें | विज्ञान अंगी जडलें | परी नवें जडलें हें न मनी || ५४ ||
यापरी जे निजसज्जन | तिहीं व्हावें सावधान | द्यावें मज अवधान | हें विज्ञापन बाळत्वें || ५५ ||
सूर्य सदा प्रकाशघन | अग्नि सदा देदीप्यमान | तैसे संत सदा सावधान | द्यावें अवधान हें बालत्व माझें || ५६ ||
तंव संतसज्जनीं एक वेळां | थोर करूनियां सोहळा | आज्ञापिलें वेळोवेळां | ग्रंथ करविला प्राकृत || ५७ ||
एकांतीं आणि लोकांतीं | थोर आक्षेप केला संतीं | तरी सांगा जी मजप्रती | कोण ग्रंथीं प्रवर्तों || ५८ ||
पुराणीं श्रेष्ठ भागवत | त्याहीमाजी उद्धवगीत | तुवां प्रवर्तावें तेथ | वक्ता भगवंत तुज साह्य || ५९ ||
आम्हांसी पाहिजे ज्ञानकथा | वरी तुजसारिखा रसाळ वक्ता | तरी स्तुति सांडूनि आतां | निरूपण तत्त्वतां चालवी || ६० ||
तुज संतस्तवनीं उत्साहो | हा तंव कळला भावो | तरी कथेचा लवलाहो | निजनिर्वाहो उपपादीं || ६१ ||
या संतांचे कृपावचनें | एकाएकी आनंदलों मनें | तेणें वाक्यपसायदानें | स्वानंदघनें उल्हासे || ६२ ||
जैसा मेघांचेनि गर्जनें | मयूर उपमों पाहे गगनें | नाना नवेनि जीवनें | जेवीं चातक मनें उल्हासे || ६३ ||
कां देखोनि चंद्रकर | डोलों लागे चकोर | तैसें संतवदनींचें उत्तर | आले थोर सुखावित || ६४ ||
थोर सुखाचा केलों स्वामी | तुमचें पुरतें कराल तुम्ही | तरी वायांचि कां मीपणें मी | मनोधर्मीं वळंगेजों || ६५ ||
परी समर्थांचि आज्ञा | दासां न करवे अवज्ञा | तरी सांगितली जे संज्ञा | ते करीन आज्ञा स्वामींची || ६६ ||
परी तुम्हीं एक करावें | अखंड अवधान मज द्यावें | तेणें दिठिवेनि आघवें | पावेल स्वभावें निजसिद्धी || ६७ ||
अगा तुझिया मनामाजीं मन | शब्दीं ठेविलेंसे अनुसंधान | यालागीं निजनिरूपण | चालवीं जाण सवेगें || ६८ ||
आतां वंदूं कुळदेवता | जे एकाएकी एकनाथा | ते एकीवांचून सर्वथा | आणिक कथा करूं नेदी || ६९ ||
एक रूप दाविलें मनीं | तंव एकचि दिसे जनीं वनीं | एकचि कानीं वदनीं | एकपणीं 'एकवीरा' || ७० ||
ते शिवशक्तिरूपें दोनी | नेऊन मिरवे एकपणीं | एकपणें जाली गुर्विणी | प्रसवे एकपणीं एकवीरा || ७१ ||
तें एकरूपें एकवीरा | प्रसवली बोधफरशधरा | जयाचा कां दरारा | महावीरां अभिमानियां || ७२ ||
तेणे उपजोनि निवटिली माया | आज्ञा पाळूनि सुख दे पितया | म्हणोनि तो जाहला विजया | लवलाह्या दिग्मंडलीं || ७३ ||
जो वासनासहस्रबाहो | छेदिला सहस्रार्जुन अहंभावो | स्वराज्य करूनियां पहा हो | अर्पी स्वयमेवो स्वजातियां || ७४ ||
तेणें मारूनि माता जीवविली | तेचि कुळदेवता आम्हां जाहली | परी स्वनांवें ख्याति केली | एकात्मबोली एकनाथा || ७५ ||
ते जैंपासोनि निवटिली | तैंपासोनि प्रकृति पालटली | रागत्यागें शांत झाली | निजमाउली जगदंबा || ७६ ||
तया वोसगा घेऊन | थोर दिधलें आश्वासन | विषमसंकटीं समाधान | स्वनामस्मरण केलिया || ७७ ||
ते जय जय जगदंबा | 'उदो' म्हणे ग्रंथारंभा | मतीमाजी स्वयंभा | योगगर्भा प्रगटली || ७८ ||
आतां वंदूं जनार्दनु | जो भवगजपंचाननु | जनीं विजनीं समानु | सदा संपूर्णु समत्वें || ७९ ||
ज्याचेनि कृपापांगें | देहीं न देखती देहांगें | संसार टवाळ वेगें | केलें वाउगें भवस्वप्न || ८० ||
जयाचेनि कृपाकटाक्षें | अलक्ष्य लक्ष्येंवीण लक्षे | साक्षी विसरली साक्षें | निजपक्षें गुरुत्वें || ८१ ||
नेणें जीवेंवीण जीवविलें | मृत्युवीण मरणचि मारिलें | दृष्टि घेऊनि दाखविलें | देखणें केलें सर्वांग || ८२ ||
देहीं देह विदेह केलें | शेखीं विदेहपण तेंही नेलें | नेलेपणही हारपलें | उरीं उरलें उर्वरित || ८३ ||
अभावों भावेंशीं गेला | संदेह निःसंदेहेंशीं निमाला | विस्मयो विस्मयीं बुडाला | वेडावला स्वानंदु || ८४ ||
तेथ आवडीं होय भक्तु | तंव देवोचि भक्तपणाआंतु | मग भज्यभजनांचा अंतूं | दावी उप्रांतू स्वलीला || ८५ ||
नमन नमनेंशीं नेलें | नमितें नेणो काय जाहलें | नम्यचि अंगीं घडलें | घडले मोडलें मोडूनि || ८६ ||
दृश्य द्रष्टा जाण | दोहींस एकचि मरण | दर्शनही जाहलें क्षीण | देखणेपण गिळूनी || ८७ ||
आतां देवोचि आघवा | तेथें भक्तु न ये भक्तभावा | तंव देवोही मुकला देवा | देवस्वभावा विसरोनी || ८८ ||
देवो देवपणे दाटला | भक्तु भक्तपणें आटला | दोहींचाही अंतु आला | अभेदें जाहला अनंतु || ८९ ||
अत्यागु त्यागेंशीं विराला | अभोगु भोगेंशीं उडाला | अयोगु योगेंशीं बुडाला | योग्यतेचा गेला अहंभावो || ९० ||
ऐशियाहीवरी अधिक सोसु | सायुज्यामाजीं होतसे दासू | तेथील सुखाचा सौरसु | अति अविनाशु अगोचरू || ९१ ||
शिवें शिवूचि यजिजे | हें ऐशिये अवस्थेचि साजे | एर्हवीं बोलचि बोलिजे | परि न पविजे निजभजन || ९२ ||
ये अभिन्न सुखसेवेआंतु | नारद आनंदें नाचत गातु | शुकसनकादिक समस्तु | जाले निजभक्तु येणेंचि सुखें || ९३ ||
सागरीं भरे भरतें | तें भरतें भरे तरियांतें | तैसें देवेंचि देवपणें येथें | केलें मातें निजभक्तु || ९४ ||
सागर सरिता जीवन एक | परी मिळणीं भजन दिसे अधिक | तैसें एकपणेंचि देख | भजनसुख उल्हासे || ९५ ||
वाम सव्य दोनी भाग | परी दों नामी एकचि आंग | तैसा देवभक्तविभाग | देवपणीं साङ्ग आभासे || ९६ ||
तेवीं आपुलेपणाचेनि मानें | भक्तु केलों जनार्दनें | परी कायावाचामनें | वर्तविजे तेणें सर्वार्थीं || ९७ ||
तो मुखाचें जाला निजमुख | दृष्टीतें प्रकटे सन्मुख | तोचि विवेकेंकरून देख | करवी लेख ग्रंथार्थी || ९८ ||
परी नवल त्याचें लाघव | अभंगीं घातलें माझें नांव | शेखीं नांवाचा निजभाव | उरावया ठाव नुरवीच || ९९ ||
या वचनार्था संतोषला | म्हणे भला रे भला भला | निजभाविकु तूंचि संचला | प्रगट केला गुह्यार्थु || १०० ||
हे स्तुति कीं निरूपण | ग्रंथपीठ कीं ब्रह्मज्ञान | साहित्य कीं समाधान | संज्ञाही जाण कळेना || १०१ ||
तुझा बोलुचि एकएकु | सोलीव विवेकाचा विवेकु | तो संतोषासी संतोखू | आत्यंतिकू उपजवी || १०२ ||
तुझेनि मुखें जें जें निघे | तें संतहृदयीं साचचि लागे | मुमुक्षुसारंगांचीं पालिंगें | रुंजी निजांगें करितील || १०३ ||
ग्रंथारंभु पडला चोख | मुक्त मुमुक्षु इतर लोक | श्रवणामात्रेंचि देख | निजात्मसुख पावती || १०४ ||
येणें वचनामृत तुषारें | ग्रंथभूमिका विवेकांकुरें | अंकुरली एकसरें | फळभारें सफलित || १०५ ||
कीं निर्जीवा जीवु आला | नातरी सिद्धा सिद्धिलाभु जाला | कीं निजवैभवें आपुला | प्रियो मीनला पतिव्रते || १०६ ||
तैसेनि हरुषानंदें | जी जी म्हणितलें स्वानंदें | तुमचेनि पादप्रसादें | करीन विनोदें ग्रंथार्थू || १०७ ||
श्रीरामप्रतापदृष्टीं | शिळा तरती सागरापोटीं | कीं वसिष्ठवचनासाठीं | तपे शाटी रविमंडळीं || १०८ ||
कीं याज्ञवल्कीच्या मंत्राक्षता | शुष्ककाष्ठांस पल्लवता | कीं धर्में श्वानु सरता | केला सर्वथा स्वर्गलोकीं || १०९ ||
तैसे माझेनि नांवें | ग्रंथ होती सुहावे | आज्ञाप्रतापगौरवें | गुरुवैभवें सार्थकु || ११० ||
घटित एका आणि एकादशें | राशि-नक्षत्र एकचि असे | त्या एकामाजीं जैं पूर्ण दिसे | तैं दशदशांशें चढे अधिक || १११ ||
मागां पुढां एक एक कीजे | त्या नांव एकादशु म्हणिजे | तरी एका एकपणचि सहजें | आलें निजबोधें ग्रंथार्थें || ११२ ||
तेथें देखणेंचि करूनि देखणें | अवघेंचि निर्धारूनि मनें | त्यावरी एकाजनार्दनें | टीका करणें सार्थक || ११३ ||
पाहोनि दशमाचा प्रांतु | एकादशाच्या उदयाआंतु | एकादशावरी जगन्नाथु | ग्रंथार्थु आरंभी || ११४ ||
म्हणौनि एकादशाची टीका | एकादशीस करी एका | ते एकपणाचिया सुखा | फळेल देखा एकत्वें || ११५ ||
आतां वंदूं महाकवी | व्यास वाल्मीक भार्गवी | जयातें उशना कवी | पुराणगौरवीं बोलिजे || ११६ ||
तिहीं आपुलिये व्युत्पत्ती | वाढवावी माझी मती | हेचि करीतसें विनंती | ग्रंथ समाप्तीं न्यावया || ११७ ||
वंदूं आचार्य शंकरू | जो ग्रंथार्थविवेकचतुरू | सारूनि कर्मठतेचा विचारू | प्रबोधदिनकरू प्रकाशिला || ११८ ||
आतां वंदूं श्रीधर | जो भागवतव्याख्याता सधर | जयाची टीका पाहतां अपार | अर्थ साचार पैं लाभे || ११९ ||
इतरही टीकाकार | काव्यकर्ते विवेकचतुर | त्यांचे चरणीं नमस्कार | ग्रंथा सादर तिहीं होआवें || १२० ||
वंदूं प्राकृत कवीश्वर | निवृत्तिप्रमुख ज्ञानेश्वर | नामदेव चांगदेव वटेश्वर | ज्यांचें भाग्य थोर गुरुकृपा || १२१ ||
जयांचे ग्रंथ पाहतां | ज्ञान होय प्राकृतां | तयांचें चरणी माथा | निजात्मता निजभावें || १२२ ||
संस्कृत ग्रंथकर्ते ते महाकवी | मा प्राकृतीं काय उणीवी | नवीं जुनीं म्हणावीं | कैसेनि केवीं सुवर्णसुमनें || १२३ ||
कपिलेचें म्हणावें क्षीर | मा इतरांचें तें काय नीर | वर्णस्वादें एकचि मधुर | दिसे साचार सारिखें || १२४ ||
जें पाविजे संस्कृत अर्थें | तेंचि लाभे प्राकृतें | तरी न मनावया येथें | विषमचि तें कायी || १२५ ||
कां निरंजनीं बसला रावो | तरी तोचि सेवकां पावन ठावो | तेथें सेवेसि न वचतां पाहा हो | दंडी रावो निजभृत्यां || १२६ ||
कां दुबळी आणि समर्थ | दोहींस रायें घातले हात | तरी दोघींसिही तेथ | सहजें होत समसाम्य || १२७ ||
देशभाषावैभवें | प्रपंच पदार्थीं पालटलीं नांवें | परी रामकृष्णादिनामां नव्हे | भाषावैभवें पालटू || १२८ ||
संस्कृत वाणी देवें केली | तरी प्राकृत काय चोरापासोनि जाली | असोतु या अभिमानभुली | वृथा बोलीं काय काज || १२९ ||
आतां संस्कृता किंवा प्राकृता | भाषा झाली जे हरिकथा | ते पावनचि तत्त्वता | सत्य सर्वथा मानली || १३० ||
वंदूं 'भानुदास' आतां | जो कां पितामहाचा पिता | ज्याचेनि वंश भगवंता | झाला सर्वथा प्रियकर || १३१ ||
जेणें बाळपणीं आकळिला भानु | स्वयें जाहला चिद्भानु | जिंतोनि मानाभिमानु | भगवत्पावनु स्वयें झाला || १३२ ||
जयाचि पदबंध प्राप्ति | पाहों आली श्रीविठ्ठलमूर्ति | कानीं कुंडलें जगज्ज्योति | करितां रातीं देखिला || १३३ ||
तया भानुदासाचा 'चक्रपाणि' | तयाचाही सुत सुलक्षणी | तया 'सूर्य' नाम ठेवूनि | निजीं निज होऊनि भानुदास ठेला || १३४ ||
तया सूर्यप्रभाप्रतापकिरणीं | मातें प्रसवली रुक्मिणी | म्हणौनि रखुमाई जननी | आम्हांलागूनि साचचि || १३५ ||
हे ग्रंथारंभकाळा | वंदिली पूर्वजमाळा | धन्य निजभाग्याचि लीळा | आलों वैष्णवकुळा जन्मोनि || १३६ ||
ते वैष्णवकुळीं कुळनायक | नारद प्रल्हाद सनकादिक | उद्धव अक्रूर श्रीशुक | वसिष्ठादिक निजभक्त || १३७ ||
ते वैष्णव सकळ | ग्रंथार्थीं अवधानशीळ | म्हणौनि वैष्णवकुळमाळ | वंदिली सकळ ग्रंथार्थीं || १३८ ||
उपजलों ज्याचिया गोत्रा | नमन त्या विश्वामित्रा | जो कां प्रतिसृष्टीचा धात्रा | गायत्रीमंत्रा महत्त्व || १३९ ||
जो उपनिषद्विवेकी | तो वंदिला याज्ञवल्की | जो कविकर्तव्यातें पोखी | कृपापीयूखीं वर्षोनी || १४० ||
नमन भूतमात्रां अशेखां | तेणें विश्वंभरू जाहला सखा | म्हणौनि ग्रंथारंभू देखा | आला नेटका संमता || १४१ ||
आतां नमूं दत्तात्रेया | जो कां आचार्यांचा आचार्या | तेणें प्रवर्तविलें ग्रंथकार्या | अर्थवावया निजबोधु || १४२ ||
तो शब्दातें दावितु | अर्थु अर्थें प्रकाशितु | मग वक्तेपणाची मातु | स्वयें वदवितु यथार्थ || १४३ ||
तो म्हणे श्रीभागवत | तें भगवंताचें हृद्गत | त्यासीचि होय प्राप्त | ज्याचें निरंतर चित्त भगवंतीं || १४४ ||
तें तें हें ज्ञान कल्पादी | 'चतुःश्लोक' पदबंधीं | उपदेशिला सद्बुद्धी | निजात्मबोधीं विधाता || १४५ ||
नवल तयाचा सद्भावो | शब्दमात्रें झाला अनुभवो | बाप सद्गुरुकृपा पहा हो | केला निःसंदेहो परमेष्ठी || १४६ ||
तो चतुःश्लोकींचा बोधु | गुरुमार्गें आला शुद्धु | तेणें उपदेशिला नारदु | अतिप्रबुद्धु भावार्थीं || १४७ ||
तेणें नारदु निवाला | अवघा अर्थमयचि झाला | पूर्ण परमानंदें धाला | नाचों लागला निजबोधें || १४८ ||
तो ब्रह्मवीणा वाहतु | ब्रह्मपदें गीतीं गातु | तेणें ब्रह्मानंदें नाचतु | विचरे डुल्लतु भूतळीं || १४९ ||
तो आला सरस्वती तीरा | तंव देखिलें व्यास ऋषीश्वरा | जो संशयाचिया पूरा | अतिदुर्धरामाजीं पडिला || १५० ||
वेदार्थ सकळ पुराण | व्यासें केलें निर्माण | परी तो न पवेंचि आपण | निजसमाधान स्वहिताचें || १५१ ||
तो संशयसमुद्रा आंतु | पडोनि होता बुडतु | तेथें पावला ब्रह्मसुतु | 'नाभी' म्हणतु कृपाळू || १५२ ||
तेणें एकांतीं नेऊनि देख | व्यासासि केला एकमुख | मग दाविले चार्ही श्लोक | भवमोचक निर्दुष्ट || १५३ ||
ते सूर्याते न दाखवुनी | गगनातेंही चोरूनी | कानातें परते सारूनी | ठेला उपदेशुनी निजबोधु || १५४ ||
तें नारदाचें वचन | करीत संशयाचें दहन | तंव व्यासासि समाधान | स्वसुखें पूर्ण हों सरलें || १५५ ||
मग श्रीव्यासें आपण | भागवत दशलक्षण | शुकासि उपदेशिलें जाण | निजबोधें पूर्ण सार्थक || १५६ ||
तेणें शुकही सुखावला | परमानंदें निवाला | मग समाधिस्थ राहिला | निश्चळ ठेला निजशांती || १५७ ||
तेथें स्वभावेंचि जाणा | समाधि आली समाधाना | मग परीक्षितीचिया ब्रह्मज्ञाना | अवचटें जाणा तो आला || १५८ ||
पहावया परीक्षितीचा अधिकारु | तंव कलीसि केला तेणें मारू | तरी धर्माहूनि दिसे थोरु | अधिकारु पैं याचा || १५९ ||
कृष्णु असतां धर्म जियाला | पाठीं कलिभेणें तो पळाला | परी हा कलि निग्रहूनि ठेला | धर्माहूनि भला धैर्यें अधिक || १६० ||
अर्जुनवीर्यपरंपरा निर्व्यंग | सुभद्रा मातामहीचें गर्भलिंग | तो अधिकाररत्न उपलिंग | ज्यासी रक्षिता श्रीरंग गर्भीं झाला || १६१ ||
गर्भींच असता ज्याच्या भेणें | स्पर्शूं न शके शस्त्र द्रौण्य | त्याचा अधिकार पूर्ण | सांगावया कोण समर्थ || १६२ ||
जेणें रक्षिले गर्भाप्रती | तया परीक्षी सर्वांभूतीं | यालागीं नांवें परीक्षिती | अगाध स्थिती नांवाची || १६३ ||
तो अभिमन्यूचा परीक्षिती | उपजला पावन करीत क्षिती | ज्याचेनि भागवताची ख्याती | घातली त्रिजगतीं परमार्थपव्हे || १६४ ||
अंगीं वैराग्यविवेकू | ब्रह्मालागीं त्यक्तोदकू | तया देखोनि श्रीशुकू | आत्यंतिकू सुखावला || १६५ ||
बाप कोपु ब्राह्मणाचा | शापें अधिकारू ब्रह्मज्ञानाचा | तयांच्या चरणीं कायावाचा | निजभावा नमस्कारू || १६६ ||
ब्रह्माहूनि ब्राह्मण थोरू | हें मीच काय फार करूं | परी हृदयीं अद्यापि श्रीधरु | चरणालंकारू मिरवितु || १६७ ||
म्हणोनि ब्रह्माचा देवो ब्राह्मणु | हा सत्यसत्य माझा पणु | यालागीं वेदरूपें नारायणु | उदरा येऊनि वाढविला || १६८ ||
म्हणोनि ब्राह्मण भूदेव | हें ब्रह्मींचे निजावेव | येथें न भजती ते मंददैव | अति निर्दैव अभाग्य || १६९ ||
ब्राह्मणप्रतापाचा नवलावो | तिहीं आज्ञाधारकू केला देवो | प्रतिमाप्रतिष्ठेसि पहा हो | प्रकटे आविर्भावो मंत्रमात्रें || १७० ||
तंव संत म्हणती काय पहावें | जें स्तवनीं रचिसी भावें | तेथें प्रमेय काढिसी नित्य नवें | साहित्यलाघवें साचार || १७१ ||
गणेशु आणि सरस्वती | बैसविलीं ब्रह्मपंक्ती | तैशींच संतस्तवनीं स्तुतीं | ऐक्यवृत्ती वदलासी || १७२ ||
पाठीं कुल आणि कुलदैवता | स्तवनीं वदलासि जे कथा | ते ऐकतांचि चित्त चिंता | विसरे सर्वथा श्रवणेंचि || १७३||
जो सद्भावो संतचरणीं | तोचि भावो ब्राह्मणीं | सुखी केले गुरु स्तवनीं | धन्य वाणी पैं तुझी || १७४ ||
तरी तुझेनि मुखें श्रीजनार्दन | स्वयें वदताहे आपण | हे बोलतांचि खूण | कळली संपूर्ण आम्हांसी || १७५ ||
चढत प्रमेयाचें भरतें | तें नावेक आवरोनि चित्तें | पुढील कथानिरूपणातें | करी निश्चितें आरोहण || १७६ ||
विसरलों होतों हा भावो | परी भला दिधला आठवो | याचिलागीं सद्भावो | तुमचे चरणीं पहाहो ठेविला || १७७ ||
उणें देखाल जें जें जेथें | तें तें करावें पुरतें | सज्जनांमाजीं सरतें | करावें मातें ग्रंथार्थसिद्धी || १७८ ||
ते म्हणती भला रे भला नेटका | बरवी ही आया आली ग्रंथपीठिका | आतां संस्कृतावरी टीका | कविपोषका वदें वहिला || १७९ ||
याचि बोलावरी माझा भावो | ठेवूनि पावलों पायांचा ठावो | तरी आज्ञेसारिखा प्रस्तावो | करीन पाहा हो कथेचा || १८० ||
तरी नैमिषारण्याआंतु | शौनकादिकांप्रति मातु | सूत असे सांगतु | गतकथार्थु अन्वयो || १८१ ||
मागें दहावें स्कन्धीं जाण | कथा जाली नवलक्षण | आतां मोक्षाचें उपलक्षण | सांगे श्रीकृष्ण एकादशीं || १८२ ||
जो चिदाकाशींचा पूर्ण चंद्र | जो योगज्ञाननरेंद्र | तो बोलता झाला शुकयोगींद्र | परिसता नरेंद्र परीक्षिती || १८३ ||
तंव परीक्षिती म्हणे स्वामी | याचिलागीं त्यक्तोदक मी | तेचि कृपा केली तुम्हीं | तरी धन्य आम्ही निजभाग्यें || १८४ ||
अगा हे साचार मोक्षकथा | ज्यांसि मोक्षाची अवस्था | तिहीं पाव देऊनि मनाचे माथां | रिघावें सर्वथा श्रवणादरीं || १८५ ||
भीतरी नेऊनियां कान | कानीं द्यावें निजमन | अवधाना करूनि सावधान | कथानुसंधान धरावें || १८६ ||
बहुतीं अवतारीं अवतरला देवो | परी या अवतारींचा नवलावो | देवां न कळे अभिप्रावो | अगम्य पहाहो हरिलीला || १८७ ||
उपजतांचि मायेवेगळा | वाढिन्नला स्वयें स्वलीळा | बाळपणीं मुक्तीचा सोहळा | पूतनादि सकळां निजांगें अर्पी || १८८ ||
मायेसि दाविलें विश्वरूप | गोवळां दाविलें वैकुंठदीप | परी गोवळेपणाचें रूप | नेदीच अल्प पालटों || १८९ ||
बाळ बळियांतें मारी | अचाट कृत्यें जगादेखतां करी | परी बाळपणाबाहेरी | तिळभरी नव्हेचि || १९० ||
ब्रह्म आणि चोरी करी | देवो आणि व्यभिचारी | पुत्र कलत्र आणि ब्रह्मचारी | हेही परी दाखविली || १९१ ||
अधर्में वाढविला धर्म | अकर्में तारिलें कर्म | अनेमें नेमिला नेम | अति निःसीम निर्दुष्ट || १९२ ||
तेणें संगेंचि सोडिला संगू | भोगें वाढविला योगु | त्यागेंवीण केला त्यागू | अति अव्यंगु निर्दोष || १९३ ||
कर्मठां होआवया बोधू | कर्मजाड्याचे तोडिले भेदू | भोगामाजीं मोक्षपदू | दाविलें विशदू प्रकट करूनि || १९४ ||
भक्ति भुक्ति मुक्ति | तिन्ही केलीं एके पंक्ती | काय वानूं याची ख्याति | खाऊनि माति विश्वरूप दावी || १९५ ||
त्याचिया परमचरित्रा | तुज सांगेन परमपवित्रा | परी निजबोधाचा खरा | या अवतारीं पुरा पवाडा केला || १९६ ||
एकादशाच्या तात्पर्यार्थीं | संक्षेपें विस्तरे मुक्ति | बोललीसे आद्यंतीं | परमात्मस्थिति निजबोधें || १९७ ||
तेथें नारदें वसुदेवाप्रती | संवादू निमिजायंती | सांगितली कथासंगती | 'संक्षेपस्थिति' या नाम || १९८ ||
तेचि उद्धवाची परमप्रीति | नाना दृष्टांतें उपपत्ति | स्वमुखें बोलिला श्रीपति | ते कथा निश्चितीं 'सविस्तर' || १९९ ||
दशमीं 'निरोध' लक्षण | मागां केलें निरूपण | जेथें धराभार अधर्मजन | निर्दळी श्रीकृष्ण नानायुक्ति || २०० ||
ज्यांचेनि अधर्मभारें क्षिति | सदा आक्रंदत होती | जिच्या साह्यालागीं श्रीपति | पूर्णब्रह्मस्थिति अवतरला || २०१ ||